वर्षा ऋतु में पथ्य-अपथ्य एवं स्वास्थ्य रक्षा

7 Min Read

मालवा में एक कहावत प्रचलित है – सावन साग और भादो दही,मरिहो नहीं तो पड़िहो सही…

अर्थात् सावन में हरी साग और भादो माह में दही का सेवन करोगे तो मर भले ही न जाओ, बीमार अवश्य पड़ाेगे। कहावत बड़ी वैज्ञानिक है। सावन में पानी प्रदूषण युक्त होता है। कृमि कीटों की भरमार होती है। बाजार में मिलने वाले हरे साग प्रदूषित पानी कीटों इल्लियों आदि से युक्त होते हैं। इन्हें खाने पर थोड़ी भी लापरवाही हमें रोगी बना सकती है। दही अभिष्यंदी होता है। अर्थात् हमारे शरीर की रसवाही शिराओं में अवरोध करके रोग पैदा करता है। वर्षा ॠतु मेंं यूं ही पाचन शक्ति अपने न्यूनतम स्तर में रहती है। ऐसे में रक्त या रसों का संचार धीमा होने पर हम अवश्य रोगग्रस्त हो जाएंगे। वर्षा ॠतु में हमारे शरीर के अन्दर पहले से बढ़ चुका वात अपने प्रभाव दिखाना प्रारम्भ करता है। शरीर मे पित्त और कफ का संचय भी इसी ॠतु में होता है। जो ॠतु बदलने पर आने वाले समय में अपना प्रभाव दिखाते है। जैसे ठंड में कफ और गर्मियों में पित्त। इसका अर्थ यह है कि हम अपने शरीर में रोग होने का वातावरण कम से कम 3 माह पूर्व ही तैयार कर लेते है। जब रोग होता है तो वह रोग विशेष का उभार ही होता है। तीव्र रोगों के उभार अचानक बढ़ते हैं और विकार शरीर से बाहर निकलने पर तुरन्त समाप्त हो जाते हैं। जीर्ण रोगों के उभार वास्तव में शरीर के किसी अंग की विकृति या निष्यक्रियता के कारण होते हैं। जैसे मधुमेह होने पर पेनक्रियास की निष्यक्रियता के कारण शरीर में ग्लूकोज का उपयोग कोशिकाएं नहीं कर पातीं और शरीर में कमजोरी आती है। जीर्ण रोग मनुष्य की वर्षों पुरानी भूलों का परिणाम हैं। ये तीव्र रोगों को दबाने के कारण भी हो जाते हैं।

आहार नियमों का पालन ॠतुओं को ध्यान में रख कर किया जाना चाहिए इसलिये हमें यह जानना आवश्यक है कि किस ॠतु कौन से रोग हो सकते हैं और कौन से खाद्य पदार्थ हमें उन रोगों से बचा सकते हैं। वर्षा ॠतु में वात की प्रबलता होती है। अत: मधुर अम्ल और लवण रसों का सेवन सीमित मात्रा में करना चाहिए। मधुर और अम्ल रस का सेवन आवश्यकता से अधिक करने पर कफ संचय होगा और शीत ॠतु में कफ विकार बढ़ने की सम्भावनाएं रहेंगी। लवण रस यद्यपि अग्निवर्धक होता है, परन्तु अधिक मात्रा में इसका सेवन करने से बल का ह्रास होने लगता है।

वर्षा ॠतु में पसीना अधिक आता है जिससे पसीने के साथ शरीर के कुछ खनिज लवण भी निकल जाते हैं इन सभी की पूर्ति के लिये विटामिन सी युक्त पदार्थ, अंकुरित अनाज का सेवन करना चाहिए। नींबू, मौसम्बी, अनार, जामुन इस मौसम के योग्य फल हैं। शरीर में अग्नि मन्द होने के कारण पेट सम्बन्धी रोग होने की सम्भावनाएं अधिक रहती हैं। अत: अदरक या सोंठ का सेवन नियमित रूप से करना चाहिए। गिलेाए, गेहू¡ के जवारे का रस, पोदीना, भुई आँवला, ग्वारपाठा आदि वनौषधियों का रस इस ॠतु में लाभदायक है। पानी सम्भवत: उबाल कर पियें और यदि आपके आस-पास मौसमी बुखार का जोर अधिक हो तो पानी उबालते समय एक मुठ्ठी अजवाईन 1 लीटर पानी में डालकर उबालें। दही और छाछ इस ॠतु में पूर्णत: वर्ज्य रखें। बाजार से पत्तेदार सब्जियां न खरीदें। कटहल बैंगन, फूलगोभी, भिंडी आदि वात वर्धक सब्जियों से भी इस ॠतु में बचें। लौकी, परवल, टिंडे, ककोरे, बरबट्टी, गिलकी, तुरई शलजम, चुकन्दर आदि सब्जियां इस ॠतु में खाई जा सकती हैं। दालों में भी मूंग की दाल का प्रयोग इस ॠतु में अधिक करें। हिन्दू परम्पराओं के अनुसार सावन से चातुर्मास प्रारम्भ होता है। इन चार माह में ही अधिकांश उपवास होते हैं। उपवास से हमारे अन्दर आकाश तत्व की वृद्धि होती है। आंतों की सिकुड़ने और फैलने की प्रक्रिया में वृद्धि हो कर खाए हुए भोजन का पाचन आसानी से होता है और मल भी बाहर निकलना सहज हो जाता है। इससे पाचन तंत्र सही बना रहता है। चातुर्मास में एक समय भोजन की भी परम्परा है। चातुर्मास में भोजन का हल्का और सुपाच्य रखने के लिए प्याज लहसुन बैंगन को वर्जित कर दिया गया है। इसके पीछे उद्देश्य यही है कि हल्का भोजन किया जाए। जैन परम्परा के अनुसार चार माह तक प्रवास भी वर्जित होता है। इसके पीछे कारण यह है कि मनुष्य अत्यधिक श्रम साध्य कार्य इन चार माह में न करें।
इस वर्ष चातुर्मास 7 जुलाई 2025 को देवशयनी एकादशी से 2 नवंबर 2025 तक रहेगा।

वर्षा ॠतु में भाप स्नान अवश्य करना चाहिए ताकि त्वचा के रोमछिद्र खुल जाएं और पसीने के साथ विजातीय द्रव्य शरीर से बाहर निकल जाएं। इसी तरह मालिश भी इस ॠतु में प्रभावी है। मालिश से शरीर में रक्त संचार की गति मिलती है और आन्तरिक र्जा में वृद्धि होती है। वर्षा ॠतु में कुछ निषिद्ध कर्म भी है। जैसे पूर्व से आई हुई हवा का सेवन नहीं करना चाहिए इससे वात वृद्धि की सम्भावनाए बढ़ती है। वर्षा ॠतु में अधिक धूप अथवा ओस का सेवन न करें। प्रतिदिन मैथुन भी इस ॠतु में वर्जित है। नदी के जल का उपयोग न करें क्योकि वातावरण में प्रदूषण अधिक होता है। दिन में सोना इस ॠतु में अहितकर माना जाता है। रूखा भोजन न करें।

डॉ. पूर्णिमा दाते
(लेखिका आयुर्वेद एवं रसाहार चिकित्सा विशेषज्ञ हैं।)

इस पोस्ट को साझा करें:

WhatsApp
Share This Article
Leave a Comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *